२२ जनवरी, १९५८

 

श्रीमां ''दिव्य जीवन'' पढ़ना जारी रखती

हैं और उच्चतर जातिके आविर्भावके विरुद्ध

बौद्धिक तर्कको आलोचना समाप्त करती

है ।

 

 अगली बार हम असली तर्क-वितर्क आरंभ करेंगे । ये सब तर्क-वितर्क उस प्रदेशमें विचरते है जहां तुम्हें आने-जानेकी आदत नहीं है, है क्या? वह तुम्हारे लिये काफी अजाना क्षेत्र है ।

 

        असलमें तो यह एक खास प्रदेश है, कर्म और व्यावहारिक सिद्धिके लिये निपट बेगाना । मुझे हमेशा यह संभव लगता है कि मनुष्य किसी भी एक विचारकों ले, तर्कवितर्कका आरंभ-केन्द्र बनाकर बौद्धिक तर्कोंके द्वारा उसे पूर्ण सत्य प्रमाणित कर सकता है ।

 

      यह बात काफी ध्यान देने योग्य है कि मानव क्रिया-कलापके ये दो क्षेत्र-- कर्म और चिन्तन - ऐसे है जिनका चेतनामें एक साथ निबाह प्रायः कठिन होता है । अतिविकसित चिन्तनशील मनवाले व्यक्तिका व्यावहारिक होना तो और भी विरल है । और दूसरी तरफ कर्मी-जन चिन्तनशील मनमें हमेशा बेचैनी महसूस करते है ।

 

     जब किसीका व्यावहारिक झुकाव मूलत: कार्य-सिद्धिकी ओर होता है ते। उसे ये सब, चिन्तन-मनन, वाद-विवाद और निगमन, कम या अधिक आलसियोंके मनबहलावका धन्धा लगते हैं । लेकिन... इसे जोरसे नहीं कह सकती क्योंकि यह बात बुद्धिजीवियोंको रास नहीं आयेगी । मुझे तो यह सदा ही एक कसरत लगी है जो मानसिक विकासकी दृष्टिसे तो मनो- रंजक है, पर उसका कोई खास व्यावहारिक परिणाम नहीं । अब अगर जरा तुम उनकी बात सुनो जो कल्पनाओंमें रमते हैं तो ३ कहेंगे : ''शारीरिक व्यायाम बेकारका धन्धा है जिसका कोई व्यावहारिक लाभ नहीं । क्या भला होता है कसरत करनेसे? तुम पुट्ठे ही तो हिलाते हों? जैसे तुम अपने शारीरिक पुट्ठे हिलाते हों, वैसे ही हम भी अपने मानसिक पुट्ठे क्यों न हिलाये? '' और दोनों दलीलें एक ही स्तरकी है ।

 

      क्? विचारमें इसका समाधान कही और है ।

 

 (लंबा अंतराल)

 


       जैसे ही मनुष्यको यह विश्वास हों जाय कि एक जीवन्त और वास्तविक 'सत्य' इस यथार्थ जगत्में व्यक्त होनेकी कोशिशमें है तो उसके  जिस एकमात्र चीजका महत्व और मोल रह जाता है वह है इस 'सत्य'के साथ अपनेको एक स्वर करना, जितनी पूर्णतासे हों सकें उसके साथ तादात्म्य साधना, केवल उसे अभिव्यक्त करनेवाले एक यंत्रके सिवा कुछ न होना, उसे अधिकाधिक जीता-जागता मूर्त रूप देते जाना, ताकि यह उत्तरोत्तर पूर्णताके साथ आविर्भूत हों सकें । सभी मत, सभी सिद्धान्त और सभी प्रणालियां 'सत्य'को अभिव्यक्त करनेकी सामर्थ्यके अनुपातमें कम या अधिक अच्छी है । जैसे व्यक्ति इस पथपर आगे बढ़ता है अगर वह 'अज्ञान'की सभी सीमाओंके पार चला जाय तो उसे पता चलता है कि इस अभिव्यक्तिकी समग्रता, इसकी संपूर्णता, सर्वांगीणता 'सत्य'के आविर्भावके लिये आवश्यक है, कुछ भी त्याज्य नहीं, किसीका मी कम या ज्यादा महत्व नहीं है । एक ही चीज जो आवश्यक दिखती है, वह है सभी चीजोंका सामंजस्य जो हर चीज- को यथास्थान, बाकी सबके साथ सच्चे सम्बन्धमे एड़ दे, ताकि पूर्ण 'ऐक्य' समन्वयकारी ढंगसे प्रकट हो सकें ।

 

        यदि कोई इस स्तरसे नीचे उतरता है तो मैं कहूंगी कि अब वह कुछ नही समझता और सभी तर्क-वितर्क सच्चे मूल्योंको' हूर लेनेवाली संकीर्णता और सीमाओंमें समान रूपसे अच्छे है ।

 

        सबके साथ समन्वय रखते हुए हर चीजका अपना स्थान है । और तब मनुष्य समझना और उसके अनुसार जीना आरंभ कर सकता है ।

 

 ( मौन)

 

       व्यक्ति यह अनुभव करता है कि एक छोटी-सी क्रिया, चाहे वह कितनी ही तुच्छ ओर नगण्य क्यों न दिखती हो, यदि वह उस 'सत्य'के साथ समस्वर है तो सब शानदार युक्तियोंसे अधिक कीमती है ।

 

      अपने भीतर ज्योतिके एक बिन्दुको चमकने दो । और वही बिन्दु -- प्रकाश क्या है ओर क्या कर सकता है -- इसपर दुनिया-भरके सबसे सुन्दर भाषणोंकी अपेक्षा अंधेरेको विलीन करनेमें अधिक प्रभावशाली होगा ।

 

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